अजीत द्विवेदी
उन्हें पहली बार पांच तारा होटल इंटरकांटिनेंटल में देखा था। कुछ सकुचाई हुई सी और ढेर सारे लोगों की तवज्जो मिलने से कुछ सहमी हुई सी। वहां मौजूद तमाम दूसरे लोगों से अलग। अपने पहनावे में। अपने व्यवहार में। और अपनी भाषा-बोली में भी। वे राजकुमारियां थीं अलवर की। जी हां, सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने उन्हें यहीं नाम दिया है – प्रिंसेस ऑफ अलवर। इनके परिवार के पास राज के नाम पर अलवर की अलग-अलग गलियां थीं। अलग-अलग मुहल्ले थे। जहां इनके परिजन सिर पर मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा को एक सामाजिक मजबूरी के तौर पर जिंदा रखे हुए थे। इन्हें भी उसी पेशे में उतरना था। अपने घर पर नहीं तो, ससुराल में। ज्यादातर राजकुमारियों की यही कहानी है। इंसानी गैर बराबरी को सबसे दुखद ढंग से प्रतीकित करने वाले इस पेशे से डॉ. पाठक ने इन्हें बाहर निकाला।
इन्हीं में एक थी- हेमलता चौमड़। हमारी पहली मुलाकात बेहद औपचारिक पांच तारा माहौल में हुई थी। लेकिन जब सुलभ कांप्लेक्स में हम लोग दूसरी बार मिले तो एक बिल्कुल अलग हेमलता हमारे सामने थे। अपनी मौजूदा स्थिति से संतुष्ट और खुश। आत्मविश्वास से भरी, लेकिन अपने पुराने दिनों को याद कर कुछ लज्जित होती हुई, दुख से भरती हुई। अपने बेटे के अलग हो जाने के नितांत निजी दुख को शेयर करती हुई और अपनी बेटियों के कुछ बड़ा करने की सोच कर गर्व से भर जाती हुई। हेमलता की कहानी किसी भी अछूत परिवार की कहानी की तरह ही है। लेकिन कहानी में कई जगह ऐसे ट्विस्ट हैं, जो इसे विशिष्ठता प्रदान करते हैं। अगर इसके लिए कालिगुला नाटक का संवाद उधार लें तो कह सकते हैं – दुनिया के सारे सुखी परिवार एक जैसे होते हैं, दुखी परिवार अपने दुखों के कारण विशिष्ठ हो जाते हैं। ऐसी ही कुछ विशिष्ठता हेमलता के परिवार के साथ जुड़ी हुई है।
पिता सरकारी अस्पताल में नौकर थे और माई घरों में दाई का काम करती थी। चार बहन और दो भाइयों के इस भरे-पूरे परिवार में कभी भी किसी को सिर पर मैला ढोने की जरूरत नहीं पड़ी। बड़े भाई को नगरपालिका में नौकरी मिल गई थी और छोटा भाई मजदूरी करने लगा था। घर में कमाने वाले चार लोग हों तो लड़कियों को काम करने की जरूरत नहीं थी। पिता चाहते थे कि लड़कियां कुछ पढ़ लें। क्यों पढ़ लें, इसका भी उनका अपना तर्क था। पिछले साल यानी 2007 के आठवें महीने की तीन तारीख को गुजर गए अपने पिता को याद करती हुई हेमलता बताती है कि उसके पिता कहते थे – पढ़-लिख लोगी तो ससुराल जाकर चिट्ठी तो लिख सकोगी, लेकिन हमारा बचपना था कि हम पढ़े ही नहीं। जाहिर है प्यार करने वाले पिता थे, मां थी और कमाने वाले भाई थे। लेकिन किस्मत को शायद हेमलता और उसकी बहनों का सौभाग्य मंजूर था। समझदार होने की उम्र से काफी पहले हेमलता की शादी हो गई। अपनी बड़ी बहन की शादी के मंडप में ही। अपनी बड़ी बहन के पति के छोटे भाई से। शादी का साल हेमलता को याद नहीं है। लेकिन इतना याद है कि वह छठे महीने की 15 तारीख थी। और हां, उस समय हेमलता की अपनी उम्र सात साल थी। शादी हुई अलवर के ही घसीटा चौमड़ के बेटे जगदीश चौमड़ से। लेकिन यहां कहानी में ट्विस्ट है।
घसीटा चौमड़ और बरपाई चौमड़ के छह बेटे और दो बेटियां थीं। लेकिन घसीटा की बहन मूला देवी के कोई औलाद नहीं थी। सो मूला देवी ने अपने भाई से उसके एक बेटे जगदीश चौमड़ को गोद ले लिया था। उसी जगदीश चौमड़ से हेमलता की शादी हुई। एक समुदाय और एक जैसी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से होने के बावजूद हेमलता को ससुराल का माहौल अपने घर के माहौल से अलग मिला। वहां लोग सिर पर मैला ढोने का काम करते थे। पति जगदीश ने भी अरसे तक यह काम किया था। हेमलता ने आने के बाद कह सुन कर पति को इस पेशे से अलग कराया। लेकिन दुर्भाग्य ऐसा कि जगदीश को कोई स्थायी काम नहीं मिला। वह रिक्शा चलाता रहा, मजदूरी करता रहा और अंत में घर की मजबूरियों के कारण हेमलता को सिर पर मैला ढोना पड़ा। क्यों करना पड़ा इसकी भी एक अलग कहानी है। मूला देवी और उनके पति यानी हेमलता के वो सास-ससुर, जिन्होंने उसके पति को गोद लिया था, वो दार्जिलिंग में रहते थे। हेमलता भी अपने पति के साथ दार्जिलिंग चली गई। लेकिन परी कथा की तरह हेमलता की जिंदगी में आया यह क्षण बहुत जल्दी हवा में उड़ गया। सास खाना नहीं देती थी। ससुर शराब पीकर मार-पीट करता था। बात-बात कर हेमलता को घर से निकाल दिया जाता था। वहीं हेमलता को पहला बच्चा हुआ, जिसका नाम उसने जसवंत रखा। लेकिन सास-ससुर की प्रताड़ना बंद नहीं हुई। और आखिरकार 15 दिन के जसवंत को लेकर हेमलता और जगदीश अलवर लौट आए। हेमलता को लगता है कि तब उसकी उम्र 14 साल थी और वह अस्सी के दशक के आखिरी या नब्बे के दशक के शुरुआती दिन थे। यानी इस लिहाज से बड़े बेटे की उम्र कोई 18 साल है और खुद हेमलता की उम्र करीब 32 साल।
अलवर के हजूरी गेट, नई कॉलोनी, मोरा के पास पांच-छह घर हेमलता के हिस्से आए थे। हर घर से 50-60 रुपए का महीना मिलता था। ननद के साथ हेमलता इस काम पर जाती थी। उसकी तबियत बिगड़ जाती थी। अक्सर वह जजमान के घर में उल्टियां कर देती थी, जिससे वे नाराज भी होते थे। लेकिन मजबूरी थी। इस मजबूरी में कोई दस साल तक हेमलता ने यह काम किया। इस बीच हेमलता को चार बच्चे और हुए – दो लड़कियां और दो लड़के। इन बच्चों की भी अलग कहानी है। सबसे बड़े बेटे जसवंत ने एक तलाकशुदा महिला के साथ कोर्ट में जाकर शादी कर ली है और अपने परिवार से अलग रहता है। इस शादी के लिए उसने अपनी दादी यानी मूला देवी से एक बड़ी रकम भी हथिया ली थी। इतना ही नहीं जसवंत अपने दूसरे भाई-बहनों से झगड़ा भी करता है। दूसरा बेटा मनु मजदूरी करता है और कमाई का पैसा मां के हाथ में रखता है। तीसरा बेटा मुर्गा फार्म में काम करता है और दो बेटियां स्कूल जाती हैं। जाहिर है पिता के लाख कहने के बावजूद जो काम हेमलता ने नहीं किया, वह दोनों बेटियां कर रही हैं।
जिस समय दुनिया नई सहस्राब्दी शुरू होने का जश्न मना रही थी, उस समय भी हेमलता और उसके जैसी सैकड़ों हजारों महिलाएं सिर पर मैला ढोने का काम कर रही थीं लेकिन नई सहस्राब्दी शुरू होने के दूसरे साल यानी 2002 में डॉ. बिंदेश्वर पाठक अलवर गए। फिर आया हेमलता के जीवन का सबसे बड़ा बदलाव। उसके सामने उस गलाजत भरी जिंदगी से निकल कर संभ्रांत लोगों की तरह जीने का प्रस्ताव था। उसे लगा, जैसे वह सपना देख रही हो। लेकिन बहुत जल्दी वह सपना साकार हो गया। हेमलता को सुलभ के सेंटर नई दिशा में नौकरी मिल गई, जहां वह पापड़, अचार बनाने का काम करती है और सिलाई-कढ़ाई भी करती है। हेमलता के लिए यह सिर्फ एक नौकरी नहीं है, जहां से कमा कर वह अपने परिवार का खर्च चलाती है। बल्कि यह सामाजिक स्वीकृति का खुला रास्ता है। अब उसे ऊंचे तबके के लोगों के साथ उठने-बैठने की मंजूरी मिल गई है। हेमलता का मोहल्ला जहां से शुरू होता है, उसके मुहाने पर ही ब्राह्मणों के घर हैं। अब उन घरों में रहने वाले हेमलता के साथ बात करते हैं, उसका हाल-चाल पूछते हैं और हां, उसके हाथ के बनाए पापड़-अचार भी खाते हैं। जब से उन्हें यह पता चला है कि हेमलता न्यूयार्क जाएगी औऱ दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्र संघ में उसके ऊपर लिखी गई किताब रिलीज होगी, तो उससे घृणा करने वालों को भी उससे रश्क होने लगा है। यह एक व्यक्ति के जीवन का एक चक्र पूरा होने की तरह है।
हेमलता अब भी अलवर की उन गलियों में रहती हैं, जहां उसने अपने जीवन के सबसे खूबसूरत दिन बेहद नारकीय ढंग से बिताई है। वहां उसका अपना पक्का, लेकिन टूटा-फूटा घर है। अब वह वहां की राजकुमारी है। वह इज्जत भरी आत्मनिर्भर जिंदगी बिता रही है। उसका पति उसे बहुत प्यार करता है। उसके पास मोबाइल फोन है, दिल्ली प्रवास के दौरान जिस पर फोन करके पति लगातार हाल-चाल पूछ रहा था। चार बच्चे साथ रहते हैं। माई दो-तीन महीने में घर आ जाती है। अब अचानक उसे लगने लगा है कि उसकी किस्मत अच्छी है। अब उसे अपने बच्चों की चिंता है और यह चिंता बात-बात में झलकती है। वह कहती रहती है – पता नहीं उनकी किस्मत में क्या लिखा है। वह चाहती है कि बेटों की शादी हो तो घर में पोतियां आएं, क्योंकि लड़कियां उसे अच्छी लगती हैं। दूसरी चाहत है कि बेटियां पढ़-लिख जाएं और उनकी अच्छे घरों में शादी हो जाए। इंशाअल्लाह, हेमलता की यह ख्वाहिश भी पूरी हो।
Tuesday, May 27, 2008
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